3 Oct 2012

खामोश लम्हे...10


भानु ! “, उसकी भाभी ने उसे आवाज दी।

हाँ”, भानु की आवाज जैसे कहीं दूर से आ रही थी। वह निस्पंद सा लेटा रहा।

अंदर चलो , पुजा करने के लिए”, पुजा की थाली हाथ मे लिए उसकी भाभी ने पास आकर कहा। उठते उठते उसने बड़ी चतुराई से आंशु पोंछ लिए। वो जानता था की उसे अब अपनी नववधू का सामना भी करना है। भारी कदमों से वो अपनी भाभी के पीछे पीछे वधू के कमरे की तरफ बढ़ गया। कमरे के दाईं तरफ सुहाग की सेज पे दुल्हन घूँघट मे सिमटी हुई बैठी थी , आहट पाकर उसकी धड़कने बढ़ने लगी।

 इधर आ जाओ सीमा” ,भाभी ने भानु की दुल्हन सीमा को पुकारा तो दुल्हन के शरीर मे हलचल हुई। वह सकुचाई सी सेज से उठी और इशारा पाकर पुजा के लिए पास आकर बैठ गई। भानु को भी उसकी भाभी ने सीमा के पास बैठने को कहा। फेरों के वक़्त से अब तक कई बार उन दोनों को रस्मों की अदयागी के लिए पास पास लाया गया था। दोनों मे अभी तक कोई बात नई हुई थी। भानु की तरफ से पहल की आशा लिए वधू इंतजार की घड़ियाँ गिन रही थी। उधर भानु अपने टूट चुके सपनों के साथ रंजना की नजरों का सामना नहीं कर पा रहा था।

भाभी कमरे को बाहर से बंद करके कब चली गई भानु को पता ही नई चला। पता भी कैसे चलता , आज दिनभर उसने एक मुर्दा लाश की तरह ही अपने आपको सबके हवाले कर रखा था। किसिने उसकी उदासी का सबब नहीं पूछा। सब यही सोच रहे थे की संकोच की वजह से कुछ बोल नहीं पा रहा, धीरे धीरे इस माहौल  का आदि हो जाएगा। पुजा की थाली मे जलता दीपक अपने आखिरी वक़्त मे तड़प तड़प कर डैम तोड़ चुका था। कोने मे रखी लालटेन की लौ अभी तक कमरे मे फैले अंधेरे से दो दो हाथ कर रही थी। कमरे मे छाया सन्नाटा सीमा की बैचेनी बढ़ा रहा था। थक हार कर उसने खुद पहलू बदला , हल्की कुलबुलाहट ने भानु का ध्यान खींचा। उसने अपनी दुल्हन की तरफ देखा जिसे परिवार ने बिना उसकी मर्जी जाने उसके साथ बैठा दिया था।                          

  अपने घुटनो को मोड़ कर उनको अपनी कलाइयों मे लपेट सिमटकर बैठी सीमा भानु को किसी न किसी बहाने कलाइयों को हरकत दे चुड़ियाँ खनकाकर अपनी मौजूदगी का अहसास करा रही थी। पैरों की महावर, हाथों मे रची मेहंदी भानु को आकर्षित करने का प्रयास कर रही थी। निष्ठुर खामोश था।  

लंबी खामोशी के बाद भानु ने सोचा इन सबके लिए वो खुद जिम्मेदार है, सीमा की इसमे क्या गलती है ?, जो वह उसकी उम्मीदों का गला घोट रहा है। उसने तो उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा ,फिर वो उसको किस जुर्म की सजा दे रहा है। उसे क्या हक़ है उसकी खुशियों को उससे महरूम रखने का ?

 भानु अजीब सी दुविधा में फंसा था। वो परिस्थितियों से सामंजस्य बैठाने की कशमकश मे बार बार पहलू बदल रहा था। एक तरफ सीमा अपने हक़ का इंतजार कर रही थी तो दूसरी तरफ रंजना अपने प्यार का हवाला दे उसे अपनी और खींच रही थी। भानु रंजना की समृतियों से चाहकर भी बाहर आने मे असमर्थ नजर आ रहा था। वो इस कसमसाहट मे और गहरे तक समृतियों के दलदल मे धंस रहा था। भानु उन दोनों के बीच खड़ा अपनी बेबसी जता रहा था। भानु ने मन ही मन रंजना से माफी मांगी और वक़्त के हाथों मिली शिकस्त को स्वीकार करने लगा। दुल्हन रातभर घूँघट मे घुटती रही और उसके साथ दो बिछुड़े हुये प्रेमी भी अपने  नसीब पे अश्क बहा उसके दुख मे भागीदार बनते रहे...   

उधर कॉलेज की छूटियों के बाद रंजना आते जाते भानु के कमरे के बंद पड़े दरवाजे को देख निराश होती रही। विरह की वेदना उसके चेहरे से साफ झलक रही थी। उसकी बड़ी बड़ी आंखे मे प्यार की खुमारी नहीं जुदाई का दर्द पसरा हुआ था। पहले तो ये सोच मन को समझाती रही की सायद छुट्टियों के बाद भानु वापिस लौट आएगा। उसने दुर्गा से भी इस बाबत बात की मगर उस से भी कोई आश्वस्त करने वाला जवाब नहीं मिला। मगर जब महीने और फिर साल गुजरने लगे तो उसका दिल बैठने लगा। उसका प्रफुल्लित चेहरा अपनी आभा खो रहा था। कॉलेज से आते जाते रास्ते भर उसकी नजरे भानु को तलाशती रहती थी। वो अक्सर जब अपनी सहेलियों के साथ कॉलेज से आती थी तो उस वक़्त भानु अपने कॉलेज जाते हुये मिल जाता था। हालांकि रंजना की सहेलियाँ साथ रहती थी इसलिए उनमें कभी हाय हैलो जैसे औपचारिक शब्दों का आदान प्रदान तक नहीं हुआ था लेकिन  उनकी नजरों से छुपकर एक दूसरे को आंखो ही आंखो मे बहुत कुछ कह जाते थे।
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(  विक्रम  सुरतगढ़  रंजना  )

खामोश लम्हे..1

  एक इंसान जिसने   नैतिकता की   झिझक मे अपने पहले प्यार की आहुती दे दी और जो उम्र भर  उस संताप   को   गले मे डाल...