3 Oct 2012

खामोश लम्हे...9

वक़्त किसी के लिए कहाँ रुकता है, वह तो निर्बाध गति अपने अंदर छुपे सेंकड़ों लम्हों को अतीत के अँधेरों मे विलुप्त करता जा रहा था। बड़े से बड़े घावों को भरने की कूवत रखने वाला वक़्त भी कभी कभी घावों को नासूर बना देता है। भानु ने इसे अपनी तकदीर समझ रंजना की यादों को अपने दिल के किसी कोने में दफन करने का मन बना लिया था। मगर दिमाग भला दिल से कब जीता है, वो तो मनमौजी है।  

 आज भानु को रंजना से बिछड़े पूरे दो साल गुजर गए थे, लेकिन भानु एक पल को भी उसे भुला नई पाया था। एक दो बार भानु ने अपनी माँ से अनुपगढ़ अपने किसी दोस्त से मिलकर आने के बहाने से पूछा तो उसकी माँ ने कहा की नहीं बेटे, तुम्हारे पिताजी नहीं मानेंगे। भानु मे खुद मे इतनी हिम्मत नहीं थी की वो अपने पिता से अनुपगढ़ जाने की बात कर सके। वो मन मसोसकर रह गया।

भानु पत्राचार के माध्यम से अपनी स्नातक की पढ़ाई खत्म कर चुका था, और किसी रोजगार की तलाश मे इधर उधर हाथ पैर मार रहा था। उसके पिता ने उसे नौकरी खोजने के लिए कहा था। वो नहीं चाहते थे की पढ़ लिखकर भानु उनकी तरह खेती बाड़ी करे। भानु की मेहनत रंग लाई और उसे एक निजी फर्म मे क्लर्क की नौकरी मिल गई। एक महीने बाद उसे ट्रेनिंग के लिए दिल्ली जाना था। इसी बीच भानु के लिए एक शादी का रिश्ता आगया जिसे उसके पिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। भानु की रायसूमारी की उन्होंने कोई जरूरत नहीं समझी। वो जानते थे की भानु कभी उनकी बात नहीं टालेगा। भानु ने हारे हुये जुआरी  की तरह समर्पण कर दिया। उसने अपने अरमानों का गला घोंट दिया। उसने परिवार और समाज की मर्यादा को निभाते हुये अपने जज़्बात सीने मे ही दफन कर लिए। उसे रंजना की कोई खबर नहीं थी। उसे नहीं पता था जब रंजना को उसकी शादी का पता चलेगा तो उसकी क्या प्रीतिक्रिया होगी।

 उसने एक बूत की तरह अपनी जिम्मेदारियों को निभाया,शादी की सभी रस्मों को वो गर्दन झुकाये ही निभाता रहा। उसे लग रहा था जैसे कहीं पास ही खड़ी रंजना उसे घूर रही हो। वह अपराधबोध मे दबा जा रहा था। वो अपने आप को रंजना का अपराधी समझ सिर झुकाये अपने अपराधों के लिए क्षमा मांग रहा था। वो सिर उठाकर रंजना की नजरों का सामना नहीं कर पा रहा था। सगे संबंधी उसे रस्मों की अदायगी के लिए जैसे इधर से उधर धकेल रहे थे। वो फांसी की सजा पाये मुजरिम की भांति अपने आप को उनके हवाले कर चुका था। वो अपने आपको लूटा हुआ महसूस कर रहा था, उसके कानों मे रंजना की सिसकियाँ गूंजने लगी। उसका प्यार चित्कार कर रहा था। उसकी आँखों की कोरों  पे पानी जमा हो रहा था। मगर आँसू में तब्दील होने से पहले भानु उसे पी गया था। इसी कशमकश मे जैसे उसके हलक मे उसका दिल अटक गया था। उसे अपनी साँसे डूबती सी महसूस हो रही थी। वो क्रंदन करना चाहता था। सारे बंधन तोड़ वो रंजना के पास लौट जाना चाहता था। नहीं देगा वो अपने प्यार की तिलांजलि। क्या कसूर है उसका ? क्यों भूल जाए वो रंजना को ?

बारात दुल्हन को लेकर लौट आई थी। दुल्हन के स्वागत के रूप मे शादी की अंतिम रश्म अदायगी चल राय थी। दुल्हन को एक कमरे मे बैठा दिया था जहां गाँव की औरतें मुह दिखाई की रश्म निभा रही थी। भानु की भाभी दुल्हन से सभी को परिचित करवा रही थी। भानु का भाई विजय और उसकी भाभी शादी से तीन दिन पहले ही शरीक होने आ गए थे। उसके भाई का अनुपगढ़ से अहमदाबाद ट्रान्सफर हो गया था। दिनभर की चहल-पहल के बाद अब सांझ घिर आई थी। आने जाने वालों का तांता अब धीरे धीरे कम हो रहा था। भानु अपने को ठगा सा महसूस कर गाँव के बाहर अकेले मे अपनी लाचारी के आंशु बहा था। उसकी झिझक ने आज उसे पंगु बना दिया था। उसे लगा जैसे कुछ कदम दूर खड़ी रंजना उसे आंखो से कुछ पूछ रही है।

 म....में....तुम्हारा मुजरिम हूँ रंजना... “ , वह बुदबुदाया और एसके साथ ही उसकी आंखो से आँसूओ का सैलाब उमड़ पड़ा।

 मे...लाचार था....में चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया...ले...लेकिन....में तुम्हें कभी नई भुला पाऊँगा। तुम..... तुम मेरा पहला और आखिर प्यार हो...में मरते दम तक ... तुम्हारा रहूँगा... समाज ने मेरा शरीर लूटा है मेरा ...... दिल नहीं ...में तुम्हारे पास आऊँगा ,….मुझे कुछ मोहलत दो...में .... बहुत जल्द...तुम्हारे पास आऊँगा...हाँ....में आऊँगा.....मेरा इंतजार करना...मुझे तुमसे बहुत सारी...बातें करनी है...”, कहकर वो फफक कर रो पड़ा। बाकी के शब्द उसके गले मे फँसकर रह गए थे।

 कहते हैं रोने से दिल हल्का होता है। भानु भी अपनी बेबसी मे आंशु बहाकर घर लौट आया था। दिल हल्का तो नहीं कुछ भारी जरूर हो गया था। अवसाद मे डूबा असहाय सा वह घर के आँगन मे पड़ी चारपाई पे लेट गया। अपने परिवार की खुशी के आगे उसने अपनी इच्छाओं की भेंट चढ़ा दी थी। पूरा परिवार शादी की खुशी मे डूबा था सिवाय उसके। सूरज क्षितिज मे अपनी लालिमा बिखेर वसुंधरा के आगोश मे समा चुका था। भीतर शादी के लाल जोड़े मे सिमटी दुल्हन अपने सूरज की आहट पाने को आतुर थी । भानु के दिल मे अपनी नई-नवेली दुल्हन के प्रति किसी प्रकार के अनुराग की अनुभूति नहीं थी। किसी से की बेवफ़ाई उसे धिक्कार रही थी। रंजना की रुआंसी आंखे घूर रही थी। उन आंखो मे आज वो समर्पण नहीं था जो दो साल पहले था। आज उनमे बहता अविरल अश्रुधारा का सैलाब सब कुछ  बहा देने पे आमादा था। मन के अंतर द्वंद की घुटन से छटपटा कर आंखो से निकले गरम आँसू उसके गालों से दौड़ते हुये गर्दन के पीछे जाकर छुप गए थे।
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खामोश लम्हे..1

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